Sunday, April 26, 2009

अखबारों के खिलाफ आंदोलन की जरूरत : अच्युतानंद

हमारे कुलपति महोदय का साक्षात्कार भडास4मीडिया से साभार

वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-

-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?

--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।

-पत्रकारिता में कैसे आ गए?

--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।

-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?

--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।

-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?

सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।

बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।

-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?

-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।

-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?

-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।

-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?

-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।

-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?

-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।

-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?

-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।

-आपके आदर्श कौन रहे हैं?

-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।

-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?

--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।

-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?

--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।

-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?

--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।

-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?

-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।

-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?

--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।

-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?

--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।

-खाने-पीने का शौक?

--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।

-कभी प्रेम किया है?

--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।

--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?

--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।

-आपके लिए सुख का क्षण?

-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।

-किस बात से चिढ़ होती है?

--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।

-परिवार में कौन-कौन है?

--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।

-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?

--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।

-भविष्य की क्या योजना है?

--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।

-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?

-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-

-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?

--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।

-पत्रकारिता में कैसे आ गए?

--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।

-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?

--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।

-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?

सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।

बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।

-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?

-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।

-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?

-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।

-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?

-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।

-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?

-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।

-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?

-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।

-आपके आदर्श कौन रहे हैं?

-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।

-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?

--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।

-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?

--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।

-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?

--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।

-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?

-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।

-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?

--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।

-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?

--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।

-खाने-पीने का शौक?

--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।

-कभी प्रेम किया है?

--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।

--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?

--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।

-आपके लिए सुख का क्षण?

-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।

-किस बात से चिढ़ होती है?

--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।

-परिवार में कौन-कौन है?

--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।

-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?

--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।

-भविष्य की क्या योजना है?

--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।

-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?

-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
भडास4मीडिया से साभार

प्रस्तुति
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता)
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल)
दूरभाष 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267

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