Tuesday, May 19, 2009

खबरदार ! तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...

मेरा यह लेख माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका मीडिया मीमांसा के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। - सुरेन्द्र पॉल

लगातार बढ़ रही आतंकी गतिविधियों ने पूरे विश्व का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया है। नई सहस्राब्दि में विश्व का लगभग हर राष्ट्र किसी ना किसी प्रकार के आतंकवाद का शिकार हो गया है। भारतीय उपमहाद्वीप तो जैसे आतंकवाद का गढ़ ही बन गया है। भारत और इसके पड़ोसी देशों में पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान जिस तरह से आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं, उससे विश्व शांति औऱ सौहार्द के पैरोकार सकते में है। ऐसे में ‘आतंकवाद’ का मीडिया की सुर्खियां बनना स्वाभाविक ही है। पूरी दुनिया में बढ़ते आतंकी हमलों ने न केवल मीडिया का ध्यान खींचा, बल्कि ‘आतंकवाद’ एक शोध का विषय भी बन गया है। अतंरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के कारण और निवारण को लेकर बहस छिड़ी है। इस सब के बावजूद भारतीय मीडिया अभी आतंकवाद को लेकर असमंजस में ही नजर आ रहा है। खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तो आज कटघरे में है... और उस पर उंगली उठाने वालों में पत्रकारिता से जुड़े लोगों की संख्या भी कम नहीं है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान हुए आतंकी हमलों का यदि आंकलन करें तो स्पष्ट होता है कि भारत आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार बना है। आतंकी वारदातों में जान-माल की सबसे ज्यादा क्षति भारत में हुई है। ऐसे में भारतीय मीडिया से अपनी जागरूक, निर्भीक, जिम्मेदार और निर्णायक भूमिका निभाए जाने की अपेक्षा रखना स्वाभाविक ही है, लेकिन आतंकवाद को लेकर भारतीय मीडिया अभी तक अपनी कोई सार्थक दिशा तय नहीं कर पाया है। आतंकवाद को महिमामंडित करने में जुटे और दहशत व सनसनी फैलाने वाले खबरिया चैनलों को देखकर तो ऐसा ही लगता है। आतंकवाद को लेकर दो-चार समाचार चैनलों को छोड़ सारे चैनलों की स्थिति कमोबेश एक सी है।
एक दौर था जब पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, लेकिन आज यह सब बातें पुरानी हो गईं लगती हैं। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने और टीआरपी के जबर्दस्त दबाव के चलते खबरिया चैनलों में अपराध, सेक्स भूत-प्रेत, नाग-नागिन, ओझा-औघड़ और स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधाएं तो पहले ही पल्लवित हो चुकी थीं, अब उसमें ‘आतंक’ भी एक विधा के रूप में जुड़ गया सा लगता है। इसने पत्रकारिता के सारे मानदंड बदलकर रख दिए हैं। इस अंधी दौड़ में खबरिया चैनलों ने भारतीय पत्रकारिता के वास्तविक स्वऱूप को धूमिल कर दिया है। टेलीविजन चैनलों की पिछले साल-भर की कवरेज पर अगर गौर करें तो लगता है जैसे उन्होंने जेहादी संगठनों की तरह ही आतंक फैलाने का बीड़ा उठा रखा है। ...और वह भी सबसे पहले, सबसे तेज, नई तस्वीरों और ब्रेकिंग न्यूज़ के दावों के साथ। हां ! ऐसा दिखाने से पूर्व टीवी चैनल “खबरदार ! तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ कमज़ोर दिल वालों को चैनल बदलने या टीवी से दूर भागने का अवसर कभी-कभार ज़रूर दे देते हैं।
दिल्ली में कनॉट प्लेस और कुछ अन्य स्थानों पर बम रखकर दो दर्जन से अधिक मासूमों की जान लेने वाले आतंकियों ने भी पकड़े जाने पर इस बात का खुलासा किया था कि मीडिया की कवरेज से उन्हें कितना प्रोत्साहन मिलता था। उनका कहना था कि टीवी पर आतंक की खबरें देखकर और अखबारों की कवरेज पढ़कर उन्हें सुकून मिलता था और जब काफी दिनों तक टीवी औऱ अखबार उन्हें ‘सूने’ दिखाई देते तो कुछ ऐसा करने को प्रेरित करते कि उनकी करतूतें फिर सुर्खियां बन जाएं। आतंकियों की इस सोच के उजागर होने के बाद भी भारतीय मीडिया ने कोई सबक नहीं लिया और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकियों की दुर्भावनाओं को ही प्रसारित और पोषित करने का काम चलता रहा। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने हाल ही में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है - “आने वाले समय में अगर नीर क्षीर विवेक से हम पत्रकारिता नहीं करेंगे तो अपनी पत्रकारिता की परंपरा पर गर्व नहीं कर सकेंगे।... “आतंकवादी का मुख्य हथियार डर होता है। हिंसा के माध्यम से वह केवल उन लोगों में ही डर पैदा नहीं करता जिनके मित्र या संबंधी मारे जाते हैं। बल्कि आतंक की लहरें काफी दूर-दूर तक जाती हैं”।
मुंबई में 26 नवम्बर 2008 के आतंकी हमले ने तो भारतीय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का एक ऐसा चेहरा उजागर कर दिया जिसे कुछ भी कहें, कम से कम जिम्मेदार तो नहीं कहा जा सकता। खबरिया चैनलों ने इसे ‘देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला’ घोषित करते हुए किसी क्रिकेट मैच की तरह ही इसकी कवरेज लगातार घण्टों दी और इस बीच देश की जनता की नींद हराम किए रखी। अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इस हमले को टीवी चैनलों ने कुछ इस तरह पेश किया कि आज भी टीवी पर दिखाए गए उस समय के कई दृश्य देखकर लोगों की रूह कांप उठती है। यानी मुंबई के ताज और ओबरॉय होटल व नरीमन हाउस में घुसे 10 आतंकियों ने जो कुछ किया, उसे लगातार लाइव दिखाकर टीवी चैनलों ने देश भर में आतंक फैला दिया। यहां तक कि इस होड़ में एक टीवी चैनल ने तो नरीमन हाउस और ओबेराय होटल में छिपे दो आतंकियों का ‘फोनो’ भी लाइव दिखा दिया। वैसे इस कृत्य को गलत मानते हुए केंद्र सरकार ने उक्त चैनल को नोटिस भी थमाया। नोटिस में कहा गया कि बातचीत का प्रसारण कर चैनल ने आतंकवादियों को अपना मकसद प्रचारित करने के लिए मंच प्रदान किया और देश की सुरक्षा को खतरे में डाला। साथ ही, आतंकवाद का महिमामंडन कर इसे बढ़ावा देने का काम किया। इस घटना के बाद वायुसेना प्रमुख एडमिरल सुरेश मेहता ने भी अपने बयान में नाराजगी जताते हुए कहा कि मीडिया ने सशक्त करने वाले उपकरण की भूमिका निभाने के बजाय निशक्त करने का काम किया। इस सब का असर यह हुआ कि 29 नवंबर 2008 को आई टीआरपी की रिपोर्ट में खबरिया चैनलों की दर्शक संख्या 180 प्रतिशत तक पहुंच गई। यह सब बीत गया तो खबरिया चैनलों में एक नई होड़ मच गई- पाकिस्तान के साथ युद्ध का हौव्वा खड़ा करने की। इतना ही नहीं इस घटना के कुछ माह बीत जाने के बाद आज भी टीवी चैनल इस घटना की खबरें खोद-खोद कर तलाश कर रहे हैं। ऐसे में क्या टीवी चैनल दहशत फैलाने में मुट्ठी भर आतंकियों से कहीं ज्यादा विध्वंसक नहीं दिखाई दिए? यह सवाल आज भारतीय मीडिया के समक्ष यक्षप्रश्न की तरह खड़ा है, जिसका उत्तर उसे स्वयं ढूंढना होगा।
अधिकतर टीवी चैनल आतंकवादी घटनाओं को लगभग उसी तरह प्रस्तुत करते हैं जिस तरह वे किसी आम घटना की रिपोर्टिंग करते हैं। इस बात का कतई ध्यान नहीं रखा जाता कि खुद आतंकवादी मीडिया की कवरेज से लगातार अपडेट हो सकते हैं, और मुंबई हमले के दौरान तो ऐसा हुआ भी। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि सबसे पहले दिखाने की होड़ में टीवी चैनल शायद इस बात से भी अनभिज्ञ रहते हैं कि वे जाने-अनजाने आतंकवादियों के उपकरण और हथियार बन रहे हैं। इतना ही नहीं मीडिया की गैर-जिम्मेदाराना कवरेज से कई बार धार्मिक भावनाएं भी भड़क सकती हैं। कुल मिलाकर इन आतंक की लहरों को सुनामी बनाने का काम मीडिया ही करता है।
टीवी के इस रूप पर मीडिया विशेषज्ञ डॉ. सुधीश पचौरी अपने एक लेख में लिखते हैं- “…ऐसा करते वक्त ऐसी घटनाओं की इस तरह की बड़ी प्रस्तुतियां जिस तरह से धार्मिक किस्म का अस्मितामूलक विभाजन करती हैं उसकी जटिलताएं और बारीकियां नहीं समझी जातीं। टीवी का यह ‘अस्मिताजनक’ स्वभाव मीडिया कर्मियों के द्वारा नहीं सोचा-समझा गया कि टीवी मूलतः और अंततः अस्मिताओं के उपभोग का माध्यम है। टीवी में आकर हर तस्वीर, हर साउंड-बाइट अस्मितामूलक हो उठती है और अस्मिता-चेतना की जनक होने लगती है। इसलिए अपनी ही तस्वीरों-बाइटों को गहराई से समझना मीडिया का अपना कार्य है”।
टीवी चैनलों की दलील है कि है कि हम वह सब दिखाते हैं जिसे दर्शक देखना चाहते हैं। अगर हम 11 सितंबर 2001 को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (ट्विन टॉवर) पर हुए हमले की कवरेज पर गौर करें तो हमें फर्क साफ नजर आ जाएगा। इस हमले में आधिकारिक तौर पर लगभग तीन हजार लोगों की जानें गईं। पश्चिमी मीडिया ने ये दृष्य टीवी पर बहुत संजीदगी के साथ दिखाए थे और खून का एक कतरा तक उस समय की फुटेज में नहीं था। इसके विपरीत भारत में आतंकी घटनाओं के दौरान ज़्यादातर खबरिया चैनल “तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ अधिक से अधिक आतंक फैलाने का प्रयास करते ही नज़र आए।
एक अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 10 करोड़ टेलीविजन सेट हैं और लगभग 7 करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं। टेलीविजन की दर्शक संख्या 42 से 45 करोड़ है। इस स्थिति में टीवी चैनलों की सीमा तय करने और आतंकी घटनाओं की लाइव कवरेज पर अंकुश लगाने के सवाल उठना स्वाभाविक भी था। हालांकि भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता के लिए इसे सकारात्मक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, लेकिन मीडिया की आजादी के कई पैरोकार भी इस मामले में सत्ता में बैठे लोगों के साथ सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए।
कुछ घट जाने के बाद सबसे पहले, सबसे तेज दिखाने की चूहा-दौड़ में शामिल होने वाले टीवी चैनलों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्यों वे हमले से पहले देश की सुरक्षात्मक खामियों की खोज-खबर लेने में नाकाम रहे। मुबंई हमले के सीधे प्रसारण ने आम दर्शकों को आतंक की दुनिया से परिचित करा दिया। ऐसे में समाज और सरकार की चिंता बिल्कुल जायज है। अब तो चैनलों की इस होड़ के खिलाफ हर तरफ से आवाजें भी खुलकर उठ रही हैं, लेकिन सुधरने के लिए अभी भी कोई दिल से तैयार नजर नहीं आता। इतना जरूर हुआ कि पत्रकारिता से जुड़े लोग भी अब मानने लगे हैं कि मीडिया को अपनी सीमा-रेखा तय करनी चाहिए। खबरिया चैनलों पर नकेल कसने के लिए प्रसारण विधेयक का मसौदा तीन वर्षों से तैयार पड़ा है, लेकिन वह भी सवालिया निशानों से घिरा है। जाहिर था कि टीवी चैनल औऱ मीडिया से जुड़े लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार देकर इसका विरोध शुरू करते। मीडिया पर इस प्रकार की इमरजैंसी लोकतांत्रिक मूल्यों के भी बिल्कुल खिलाफ है, लेकिन समय आ गया है कि मीडिया को अब अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी होगी।
इस बीच समाचार चैनलों की संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने ऐसी घटनाओं की लाइव कवरेज को लेकर एक आचार संहिता बनाई है. जो इसे दिशा में एक सार्थक पहल है। अब जरूरत है कि खबरिया चैनल इसका उल्लंघन न करें और सूचना देने के अपने कर्तव्य को संजीदगी के साथ निभाएं।

सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता) एवं प्रभारी
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय
दूरभाषः कार्यालय 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267
ई-मेल surendersml@gmail.com

5 comments:

RAJ said...

Sir, Thanks a lot for thinking in this direction....

This is the time to decide the role of media in our life and society.

Dileepraaj Nagpal said...

Aapse Bhi Wahi Kahunga, Jo Vartika Jee Se Kaha...

शमशीर नहीं है हाथ में तो क्या हुआ,
हम कलम से करेंगे कातिलों के सर कलम...

काश, सभी के मन में ये जज्बा होता...

Dr. Rakesh Pandey said...

Really, the time has come, when we have think about it.thanks for this...

Avinashmalhotraavi@gmail.com said...

Respected Surender Paulji, I am glad to know that you are in Makhanlal Chanturvedi patrakarita vishwavidhyalay and for a noble cause your pen is contributing a lot. Let us join together to build a new wall with truth and faith.

Unknown said...

thankxx sir 4 shareing ur thoughts with us...... last week u give a lucture in ink media(sagar) it was so thoughtfull...thankxx